मौत के बाद

 



" कैसी बात कर रहे हो मिश्रा  ?  मेरे तीनों पुत्र और पुत्री को क्या आप नही जानते ..? क्या आप अपरिचित हैं उनके संस्कारों से ..क्या आपको वो लोभी या कुटिल दिखाई देते हैं ? "

" आप मेरे कहने का अर्थ नही समझे विश्वनाथ जी ! परन्तु शास्त्रों में भी धन -वैभव को मद बताया गया है ... आप विचार तो करें ..और यदि मेरी किसी बात से  आपके हृदय को ठेस लगी हो तो क्षमा करें "
मैं मिश्रा से सख्त नाराज था ..भला उसकी कैसे ये मजाल हो गई कि मेरी परवरिश पर शक करे ... मेरे तीनों पुत्र . चित्रार्थ  , स्वयम्भू और मंगल मेरी शान हैं मेरे यश और मेरी कीर्ति के वाहक हैं ... मेरी पुत्री स्नेहलता  विवाह के पश्चात भी रत्ती भर नही बदली बल्कि मेरे इकलौते दामाद आदर्श तो मेरे पुत्र के समान है ... कितना मान देते हैं वो मुझे ...और मिश्रा मेरे दिमाग में अपनी ही संतानों के लिए  जहर घोल रहा है ...

मेरा सब कुछ मेरे बच्चों का ही तो है ...मेरी ये अकूत संपत्ति क्या मेरे बच्चों का उपहार नही ..कभी जिन बच्चों ने मेरे सामने ऊँची आवाज में बात नही की ..मेरी बात नही टाली ..क्या ऐसे बच्चे सम्भव हैं अब ?
लेकिन मुझे मात्र मंगल की फिक्र है ..बचपन में सर की चोट के चलते उसका मनासिक संतुलन बिगड़ गया ...बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाया लेकिन हाथ लगा मात्र शून्य  ।

लेकिन मेरी दोनों बहुएँ जो देवियों से कम नही उन्होंने सदा अपनी संतानों से अधिक स्नेह और लाड़ लुटाया है मंगल पर .. और वकील मिश्रा बोलता है कि मुझे एक बार विचार करना चाहिए !

किस बात का विचार ..? मरणोपरांत भी तो कानूनी रूप से मेरी संपत्ति मेरे बच्चों की ही होगी .. तो फिर इतना प्रपंच किसलिए ...मुझे भान है कि मेरी ये संपत्ति और विराट होती जायेगी ..क्यूँकि मेरे बच्चों के सदगुण ही ऐसे हैं ।


ये संस्कारों का थोथापन जो अन्य लोगों में पलता है ..जिनके बच्चे धन के लिए पितृ हत्या भी पुण्य समझते हैं ...ये उन मात-पिताओं की त्रुटि होती है जिनके बच्चे संपत्ति के लालच में अर्थ -अनर्थ नही देखते ....परन्तु मुझे मेरी स्वर्गीय पत्नी आनंदी की कोख और अपने सिद्धांतों पर गर्व है कि मैंने अपने बच्चों की  सांस्कारिक लगाम दृढ़ता से थामे रखी ....बहुत अधिक खुलापन उनपर हावी नही होने दिया ...

सोचते -विचरते , घर पहुँचा , तो दोनों बहुएँ दौड़ कर दहलीज तक चली आईं ...सीना चौड़ा हो गया ..
" बाबूजी आ गये ! ...लाइये गमछा मुझे दीजिये ..."

छोटी बहु शारदा भी पीछे कहाँ रहती ..मेरे हाथों से बैग और छाता लेकर आगे बढ़ी ...

जैसे ही सोफे में बैठा ...इतने में बड़ी बहू निर्मला पानी का गिलास ले आई ....

मैं पानी पीता रहा और दोनों मुझे वात्सल्य दृष्टि से एकटक देखती रहीं ...

" क्या हुआ मेरी बच्चियों ...?"

निर्मला और शारदा में आँखों से खुशर-पुशर शुरू हुई ...

" अरे बताओ तो सही ..क्या बात है ?"

निर्मला यकायक बोल पड़ी ...

" बाबूजी आपके स्वास्थ्य की समृद्धि हेतु एक पूजा रखना चाहते हैं घर मे यदि आपकी आज्ञा हो तो ...?"
आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे .... आँसुओं की नियति तो बरसना ही होती है परन्तु अंतर मात्र इतना होता है कि कुछ आँसू कलेजा जलाते हैं और कुछ उसी झुलसे कलेजे में मरहम लगाते हैं ..


मैंने सहमति दे दी ...इतने में मंगल मेरे पास आ गया ....मैं उसकी नई कमीज को देखकर बोला -
" वाह मेरे लाल ..आज तो बहुत ही सुंदर दिख रहा है "

तभी शारदा बीच मे बोल पड़ी -

" कैसी लगी बाबूजी ..? मैंने पसंद की है मंगल भैया के लिए "

इतना सुख ..स्वर्ग में भी नही ..जितना इस आनन्दी विहार में केंद्रित है मैंने अपनी जेब से 100- 100 के दस पत्ते बेटी शारदा को खुशी -खुशी सौंप दिए ।।

रात को खाने की टेबल पर मेरा पूरा हरा - भरा परिवार भी था ..बहू निर्मला मेरे सबसे बड़े पुत्र चित्रार्थ की पत्नी थी ..और इनका एक इकलौता बेटा निर्निमेष था जिसकी आयु 7 वर्ष थी ...नन्नू मेरा पोता ...बहुत ही मासूम और प्यारा है ।।।

शारदा और स्वयम्भू की छोटी बिटिया आँचल थी जिसकी आयु 5 वर्ष थी ....

मेरा पूरा घर हमेशा हरा- भरा और जीवित लगता ...दोनों बेटे मेरे कपड़ों के काम को सम्हालते और हमेशा आपस में जुड़े रहते ...मेरी कपड़ो की एक बड़ी मिल है ......


हफ्ते भर बाद पुनः मैं मिश्रा के घर की ओर निकल गया ..आज भी उसकी उन्हीं बातों ने मेरे मन मे घाव कर दिए और मैं तेजी से उठा .. और जाने लगा ... मिश्रा सामने आ खड़ा हुआ ।।।

" विश्वनाथ बाबू मैंने कब कहा कि आप अपनी संपत्ति को दान कर दो ...अरे वो तो है ही आपकी संतानों की लेकिन मेरी बात सिर्फ ये है कि एक बार आँकलन कर लेने में क्या दोष है.. यदि आँकलन सही सिद्ध हुआ तो आपको और हर्ष होगा और मुझे भी मित्रता धर्म के वशीभूत संतुष्टि मिलेगी "

" तो तुम ये चाहते हो मैं अपने बच्चों की परीक्षा लूँ ..?"

" जी !"

" मिश्रा ! जो चक्षु देखते हैं जो कर्ण सुनते हैं मैं उनपर विश्वास न करके तुम्हारी खोखली बातों में विश्वास कर अपने बच्चों का दिल दुखाऊँ यही चाहते हो तुम ..?"

मैं पैर पटक कर चला गया... लेकिन उस रात अकारण सीने में तेज दर्द की अनुभूति हुई ..औषधि लेने के उपरांत कुछ राहत हुई तो मैंने अपने को अपने समस्त परिवार के मध्य घिरा हुआ पाया ...बहुत राहत मिली ..और मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा -

" मेरे बच्चों ...मेरे गुजर जाने के बाद भी ऐसे ही एक  रहना ..क्यूँकि एकता में ही शक्ति होती है "
बहुएँ मेरे इतना बोलते ही रो पड़ी और चित्रार्थ और स्वयंभू दोनों मेरे पास आकर बैठ गये और मेरा बड़ा पुत्र स्वयम्भू बोला -

" बाबूजी ! आप चिरंजीवी हों ..लेकिन आपके बिना हम नही जी सकते ...ये आज बोला है आपने अब कभी न कहियेगा "


लेकिन न जाने मेरी नजर मंगल पर जा लगी ...उसे कोई फर्क नही पड़ रहा था कि घटनाक्रम क्या चल रहा है ...वो दीवार की एक छिपकली को देख-देख मुस्कुराह रहा था ।।।

अगले दिन मिश्रा मेरे घर आया ...और मैं उससे रूठा रहा ..उसने जो बातें कहीं मैंने उनपर रत्ती भर भी ध्यान नही दिया ...शाम होते -होते सीने की पीड़ा फिर बढ़ने लगी ...

मुझे लगने लगा कि मेरा अंतिम समय सम्भवतः करीब है तो मैंने अपनी पुत्री स्नेहलता को देखने की मंशा जाहिर की ...डॉक्टर घर पर चले आये ...लेकिन मेरी नजर दरवाजे पे टिकी थी कि किसी तरह मैं स्नेहलता को देख लूँ ...

रात भर मेरे प्यारे बच्चे मेरे पास बैठे रहे लेकिन रात अभी लम्बी थी ...वहाँ सुबह आँखें खोलने की तैयारी में थी और यहाँ मेरी आँखें एक गहरी नींद में सोने को प्रेरित हो रही थी ...

तभी दरवाजे पर तेज दस्तक हुई और मेरे हृदय की दस्तक विराम से जा लगी ।।।।।

बेशक डॉक्टर ने मेरे शरीर को मृत घोषित कर दिया ...लेकिन मेरी आत्मा अभी भी आनंदी विहार न छोड़ने की हठ पर आमादा थी ।।

बेटी स्नेहलता आ चुकी थी ...और जैसे ही उसे पता चला कि उसके बाबूजी विदा लेकर अंनत पथ के यात्री हो गये वो वहीं दीवार के सहारे लग गई ....और फूट -फूट के रोने लगी ...

डॉक्टर ने मिश्रा को भी फोन कर दिया ...वो भी दौड़ा चला आया ...हम प्रतापियों में शव से लिपट कर रोना वर्जित है ...लेकिन मैं घनघोर चाहता था कि मेरे बच्चे मेरे शरीर से लिपट जायें ....

मेरे दोनों बेटे और बहुएँ भी अनियंत्रित हो चुकी थी ...और मेरे मासूम पोते और पोती भी अधीर थे ...लेकिन मंगल ताली बजा रहा था ...वो बेहद प्रफुल्लित था ...उसे लग रहा था ये कोई खेल है ....


परन्तु खेल तो ईश्वर ने मेरे साथ किया ...काश वो मुझे अपने बच्चों  से एक बार ये पूछने का मौका  तो दे देता कि " क्या मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरा करने में कोई चूक या असमर्थता दिखाई "

लेकिन यदि आत्मा स्पर्शी होती तो सबसे पहले मैं मिश्रा का गला पकड़ लेता और कहता  " देख कि तेरा शक कितना थोथा और मानसिक दिवालिया था " तभी -

" वकील साहब पिताजी की प्रोपर्टी के पेपर बनवा लीजिए और मुझे और चित्रार्थ को सम्पत्ति बराबर हिस्सों में बाँट दीजिये "

मैं सुन के सन्न रह गया ...और मेरी आत्मा विचलित हो उठी !

" वाह ..बड़े आये दो हिस्सों में बाँटने वाले ...मेरे पिता की प्रॉपर्टी में मेरा भी बराबर का हिस्सा है ..समझे तुम दोनों "

स्नेहलता की करुण अवस्था ये जुमला बोल सकती है मुझे विश्वास नही हो रहा था ...
तभी चित्रार्थ बोल पड़ा -

" ठीक है दीदी लेकिन तीन से अब चार नही होंगे ...वैसे भी इस पागल मंगल को हिस्सा देना जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा है "

अब सब समाप्त हो चुका था ...कुछ देर पहले जिस मिश्रा की उपस्थिति मुझे क्रोध हेतु ईंधन दे रही थी ..मैं अब उससे ही नजरें नही मिला पा रहा था ...

" सुनो जी हिल फार्म वाला फार्म हाउस हमारे हिस्से में आयेगा !"

" आ..हा..हा वाह निर्मला दीदी वाह और हम रहेंगे जोधपुर की रेत में क्यों ?"

मेरे दोनों फार्म हाऊस के लिए दोनों बहुओं में जंग लग गई ..मेरे अंतिम क्रियाकर्म हेतु अभी तक न कोई योजना बनी न किसी विधि की औपचारिक भूमिका का निर्वहन हुआ ....

लेकिन मंगल उछल -उछल कर ताली बजाता रहा तभी उसको एक करारा तमाचा स्वयम्भू ने जड़ा और मंगल सिहर उठा -

"  स्नेहलता हम तुम्हारी सारी बाते मान रहे हैं लेकिन तुम्हे इस पागल को भी अब अपने साथ रखना पड़ेगा "

" वाह भैय्या वाह ...क्या मैंने कोई बांड भरा है इसे अपने साथ रखने का ..वैसे भी मुझे अपने बच्चे देखने की फुर्सत नही मिलती जॉब की वजह से और तुम इस पागल को मेरे गले बांध रहे हो "

समस्या का समाधान शारदा ने निकाला और मंगल को पागलखाने भेजने की बात हुई ..इसपर सबकी एकमत सहमति दर्ज हुई ...मुझे लगा कि अब सम्भवतः मुझे मुक्ति मिलेगी लेकिन बात फिर कपड़ा मिल के हिस्सों को लेकर ठन गई ....

मिश्रा ठीक कहता था कि जो दिखता है वो सच होता तो भक्त कभी ईश्वर की खोज में दर-दर नही  भटकता ...

मेरी आत्मा छलनी हो चुकी थी , धिक्कार दी मैंने अपने संस्कारों , अपनी परवरिश को ...मेरे मुँह के  आगे साधु बनी मेरी संतानें ...मेरी पीठ के पीछे इतना विराट प्रपंच रच चुकी थी ...

तो क्या मान लूँ कि अब संस्कारों का कोई मोल नही ...? मान लूँ कि अब समय बदल चुका है ..?मान लूँ कलयुग में सब मर्यादाएँ और कर्तव्य होम हो चुके हैं ???रिश्तें अब सिर्फ एक बोझ हैं या फिर एक लालच ....????

" पप्पा ..पप्पा...दादू का पेट ऊपर - नीचे हो लहा है "

मेरे पोते की ये बात सुनते ही हर एक को साँप सूँघ गया ...लेकिन मंगल ने तालियों की बौछार कर दी ...वो ऐसे नाच उठा जैसे मयूर को वर्षा रत्न की अनूठी जड़ी मिल गई हो .....

मैं उठ खड़ा हुआ और कड़कर बोला -

" मिश्रा कानून कितने  दिन में मुझे अपनी औलादों से मुक्ति दिलवा सकता है ..?"

मिश्रा कुछ नही बोला -


" मिश्रा एक नई वसीयत बनाओ ...जिसमें ये दर्ज करो कि मेरी मृत्यु उपरांत मेरी सारी संपत्ति एक मनासिक अस्पताल बनाने हेतु उपयोग में लाई जाये ...ये अस्पताल न मेरे नाम पर होगा न मेरी बीवी के नाम पर ..ये अस्पताल मंगल के नाम पर होगा ...मंगल तब तक उस अस्पताल में आजीवन निःशुल्क रहेगा और अपना ईलाज करवायेगा जब तक उसकी मृत्यु न हो ...मिश्रा सुना तुमने "

मिश्रा सुन और समझ चुका था ...लेकिन जिनको बाप के मृत शरीर पर लालच का अपना -अपना घोड़ा दौड़ाना था वो निर्लज्ज सर झुकाए अब भी मेरे आगे खड़े थे ...पोते -पोती पर दया आई तो मिश्रा को पुनः आदेशित किया कि मेरे पोते-पोती और नवाशों की शिक्षा-दीक्षा और विवाह हेतु धनराशि भी मेरी संपत्ति से आवंटित की जाये लेकिन तभी जब इनके अभिभावक उनके प्रमाणित साक्ष्य उपलब्ध करायें  ।

मिश्रा के कहने पर मैंने इस नाटक का जुआ खेला था , जिसमें डॉक्टर वर्मा भी मिले हुए थे ...मुझे विश्वास नही था कि इस नाटक का पर्दा इस तरह गिरेगा ..लेकिन एक बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि संस्कार दिखावे की वस्तु नही होते बल्कि ये आत्मसात कर खून की रगों में दौड़ने वाले एहसास का नाम है ।


Written by Junaid Pathan

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