क्या हमारी हवा सुरक्षित है?
गरमी, धुंध और बदलती हवा: भारत की पर्यावरणीय बेचैनी को समझना
अब यह केवल एक मौसमी समस्या नहीं, बल्कि पूरे साल चलने वाला संकट बन चुका है — एक ऐसा धीमा आपातकाल जो आधुनिक भारत की साँसों में बस गया है।
ज़हरीले आसमान के नीचे एक देश
वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2025 के अनुसार, दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में से 12 भारत में हैं।
दिल्ली, गाज़ियाबाद, और लखनऊ में AQI 400 से ऊपर जाना आम बात है, जबकि WHO के मुताबिक 50 से ज़्यादा AQI असुरक्षित है।
इसका मतलब यह हुआ कि इन शहरों के लोग रोज़ाना लगभग 15–20 सिगरेट जितनी ज़हरीली हवा सांसों में भर रहे हैं।
यह केवल स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और मानसिक संकट भी है।
सांस की बीमारियाँ बढ़ रही हैं, कृषि उत्पादन घट रहा है, और लाखों बच्चे कमजोर फेफड़ों के साथ बड़े हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन: अदृश्य दुश्मन
कारखानों का धुआं, वाहनों का उत्सर्जन और पराली जलाने जैसी बातें तो चर्चा में हैं, पर जलवायु परिवर्तन चुपचाप इस समस्या को और गंभीर बना रहा है।
तेज गर्मी से ओज़ोन प्रदूषण बढ़ता है, सूखे मौसम से धूल के तूफ़ान आम हो गए हैं, और अनियमित मानसून हवा की सफाई में देरी करता है।
यह एक विषचक्र बन गया है — प्रदूषण से जलवायु बिगड़ती है और बिगड़ी जलवायु से प्रदूषण और बढ़ता है।
जैसा कि आईआईटी कानपुर के एक वैज्ञानिक कहते हैं:
“हम केवल प्रदूषण नहीं, अपने ही विकास मॉडल का परिणाम सांसों में भर रहे हैं।”
खराब हवा की अर्थशास्त्र
विश्व बैंक के अनुसार भारत को हर साल वायु प्रदूषण से करीब 95 अरब डॉलर (GDP का लगभग 3%) का नुकसान होता है।
फिर भी, विडंबना यह है कि हमारी आर्थिक प्रगति अब भी उन्हीं उद्योगों पर निर्भर है जो सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं।
कोयला आधारित बिजली संयंत्र, डीज़ल वाहन और निर्माण की धूल — इन सभी पर नियंत्रण अभी भी अधूरा है।
तकनीक और नीति की उम्मीदें
फिर भी उम्मीदें बाकी हैं।
सरकार का राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) 2026 तक PM2.5 स्तर में 40% कमी का लक्ष्य रखता है।
दिल्ली के स्मॉग टावर, ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान (GRAP) और नागरिक स्तर पर बढ़ती जागरूकता सकारात्मक संकेत हैं।
निजी क्षेत्र भी सक्रिय हुआ है —
AI आधारित एयर क्वालिटी पूर्वानुमान, सस्ते सेंसर नेटवर्क, और घरों के लिए बायो-फिल्टर जैसी तकनीकें अब प्रयोग में हैं।
मानसिक असर
अब यह सिर्फ शारीरिक नहीं, मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी बन चुका है।
युवा पीढ़ी में “पर्यावरणीय चिंता” (eco-anxiety) तेजी से बढ़ रही है — यह डर कि हमारी हवा, हमारा वातावरण अब सुरक्षित नहीं रहा।
आगे की राह
भारत को अब विकास के हर मॉडल में “स्वच्छ हवा का अधिकार” शामिल करना होगा।
शहरों को पेड़ों से, नीतियों को स्थिरता से, और ऊर्जा को नवीनीकरणीय विकल्पों से जोड़ना ही एकमात्र रास्ता है।
जब अगली बार दिल्ली की धुंध फैलती है, तो सवाल यही उठेगा —
यह धुंध कब तक रहेगी, और हम कब तक इसे झेल पाएंगे?
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